रोहतास पत्रिका/डेस्क: ‘कविताएँ’ पेज ने ‘दलित विमर्श’ से जुड़ी एक कविता अपने इंस्टाग्राम पेज पर पोस्ट की थी। उस पोस्ट को कुछ देर बाद ही इंस्टाग्राम ने यह कह कर अपने प्लेटफार्म से हटा दिया कि “आपका यह पोस्ट हमारे गाइडलाईन से बाहर है इसलिए आपके पोस्ट को हम डिलीट कर रहे है।” साहित्य से जुड़े लोग एवं पाठक इंस्टाग्राम के इस कदम को गलत बताते हुए विरोध कर रहे है।
पोस्ट में क्या था
कविताएँ पेज पर पोस्ट किए गए कविता को कवि बच्चा लाल ‘उन्मेष’ ने लिखा हैं। यह कविता एक दलित के व्यवस्था पर प्रकाश डालती है। इस कविता को अधिकांश लोगों द्वारा विभिन्न प्लेटफार्म पर रिपोर्ट किया गया है। कविता के कुछ अंश इस प्रकार है।
कौन जान हो भाई?
“दलित हैं साब!”
नहीं मतलब किसमें आते हो?
आपकी गाली में आते हैं
गन्दी नाली में आते हैं
और अलग की हुई थाली में आते है साब!
मुझे लगा हिन्दू में आते हो!
आता हूँ न साब! पर आपके चुनाव में!
क्या कहते है साहित्य से जुड़ें लोग
कविताएँ पेज के एडमिन अफ़ताब हुसैन ने कहा कि हमारे पेज पर साहित्य से जुड़े पोस्ट किए जाते हैं। हमारी कोशिश रहती है की हमलोग सभी प्रकार के पोस्ट को अपने प्लेटफार्म पर जगह दें। हमारे पेज से इंस्टाग्राम पर लगभग 1.50 लाख जुड़े है तथा अन्य सोशल मीडिया पर लाखों की संख्या में लोग हमे पसंद करते है।
वहीं साहित्य से जुड़े सुष्मित सिन्हा ने कहा, “बच्चा लाल ‘उन्मेष’ की कविताएं साहित्यकारों के क्रांति को दर्शाती हैं। जो समाज में दलितों, शोषितों और पिछड़ों की आवाज को बुलंदी से उठाते हैं। ऐसे साहित्यकारों ने दशकों से अपने कलम की ताकत से समाज में एक सकारात्मक परिवर्तन के लिए काम किया है। इंस्टाग्राम डिजिटल युग का एक ऐसा संस्थान है जहां इन विचारों को मुखरता से जगह मिलनी चाहिए। उन्मेष की कविता को इंस्टाग्राम ने जिस तरह से हटाया है उसका विरोध होना चाहिए।”
पोस्ट डिलीट होने के बाद लोगों ने क्या लिखा, आप भी पढ़े
एक यूजर ने लिखा कि “ऐसा माना जाता है कि कविता पढ़ने वाले लोग तो प्रगतिशील होंगे ही। कुछ लोग नहीं चाहते कि समाज के पिछड़े वर्ग के हक़ में कोई भी आवाज़ उठाए। साहित्यिक मंचो पर ‘मंटो’ को पूजने वाली इस पीढ़ी के लोगों की गर्दन जब कोई ठंडे पानी में डालता है तो ये लोग तिलमिला जाते हैं। कुछ लोगों ने यह फ़ॉर्म्युला क्रैक कर लिया है कि ‘प्रगतिशील’ दिखते कैसे हैं और यक़ीन मानिए ये लोग बस दिखना जानते हैं। इस से बचने की जरूरत है।”
मोटी-मोटी किताबें पढ़कर उन किताबों की जिल्द से इन्होंने ‘प्रगतिशीलता’ का चोला ओढ़ लिया है। एक वर्ग के लिए लिखी गयी कविताओं को हम हक़ नहीं दे पा रहे तो उस वर्ग से ताल्लुक़ रखने वाले हाड़-माँस के लोग जब अपना हक़ माँगेंगे तो उनको तो ज़िंदा दफ़ना दिया जाएगा। कार्ल मार्क्स कहते हैं ‘जो साहित्य वंचितों की बात नहीं करता मैं उसे साहित्य ही नहीं मानता।’
वहीं एक दूसरे यूजर ने लिखा, ”एक कविता से जब अन्यायकारी लोग तिलमिला जाते हैं तो वही कविता की जीत है।
ऐसी कविताओं को अन्यायकारी वर्ग अगर ऐसे ही दबाता रहेगा तो हम दुगुने वेग से गड्ढा खोदेंगे और उन कविताओं को झंडा बनाकर इस मुल्क की हवाओं में लहरा देंगे। शरीर में मौजूद पानी और खून की आख़िरी बूँद तक हम साहित्य को घुटने नहीं टेकने देंगे। हम पर साहित्य का क़र्ज़ है । यह क़र्ज़ कविताएँ लिखकर तो नहीं चुका पाएँगे मगर कुछ कविताओं को उनकी सही जगह पहुँचाकर यह क़र्ज़ ज़रूर उतारा जा सकता है।