रोहतास पत्रिका/नई दिल्ली:
नागरिकता संशोधन बिल (2019) संसद में पेश करने के बाद से हीं देश के अलग-अलग राज्यों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गये। खासकर पूर्वोत्तर के उन राज्यों में जिनकी सीमा बांग्लादेश से लगी हुई है। वो चाहें पश्चिम बंगाल हो या असम। देश में अलग अलग जगहों पर आगजनी हो रही है जिसका शिकार आम नागरिक हो रहे है। सरकारी सम्पतियों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है। विपक्ष मुस्लिम को बिल में ना शामिल करने को लेकर अलग विरोध कर रहा है। यह एक्ट भारतीय संविधान के आर्टिकल 14 का उलंघन है। आर्टिकल 14 के अनुसार भारत में धर्म के आधार पर कोई कानून नही बनाया जा सकता।
ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के सदस्यों के विरोध प्रदर्शन को असम के करीब 30 नागरिक संगठनों ने अपना समर्थन दे दिया है। ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन वही संगठन है, जहां से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले सर्वानन्द सोनेवाल आज मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे है। मजे की बात ये है कि सोनेवाल असम में भाजपा के ही मुख्यमंत्री हैं। और भाजपा अपने ही पार्टी के नेता से बिना सलाह लिए बिल को लेकर चली आई और पास भी करा ले गई।
सोनेवाल बार-बार असम की जनता को इस बात का भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि ‘हमारी सरकार न कभी असम की संस्कृति को नुक़सान पहुंचाया है और न ही आगे पहुँचाएगी। मैं आंदोलन कर रहे लोगो से कहना चाहता हूँ, कि आप आंदोलन कर देश का भविष्य नही बदल सकते'(इन्हें कौन बताये आंदोलनों से क्या कुछ नहीं बदला)।
असम के लोग भाजपा पर छलावा के आरोप लगा रहे है। इन लोगों का नारा है कि ‘कैब आमी ना मानू, ना मानू ना मानू’। विरोध धीरे-धीरे भयावह रूप लेते जा रहा है। अब तक असम में तीन लोगों की जानें जा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कह दिया है कि जब तक देश में हो रहे दंगे शांत नही हो जाते कोर्ट आगे की सुनवाई नही करेगा।
असम के लोगों का इस बिल के विरोध का सबसे बड़ा कारण जिन शरणार्थियों को नागरिकता मिलेगी उनसे उनकी असमियों संस्कृति और सभ्यता पर खतरा पड़ने का है। ये लोग कभी से ये नही चाहते थे, कि इन घुसपैठियों को भारत की नागरिकता दी जाए। वे इस बात को लेकर नही विरोध कर रहे कि इस बिल में नॉन-मुस्लिम को केवल नागरिकता क्यों दी जा रही है। दरअसल वहां कई जनजातियां हैं जो अपनी पहचान के लिए वर्षों से संघर्ष कर रही हैं। असम समझौते के तहत असम की जनजातियों के पहचान को सुरक्षित रखने के प्रावधान किये गये थे। जो इस विधेयक के आने के बाद से निष्प्रभावी हो जाएगा। बोड़ो, कार्बी और डिमासा इलाक़े संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत आते हैं, इसलिए यहां कानून लागू नही होगा।
राज्य में 48 फ़ीसदी लोग असमिया भाषा बोलने वाले हैं, और 28 फ़ीसद बंगाली बोलने वाले हैं। अगर बंगाली बोलने वाले मुसलमान जो असम में रहते रहते असमी भाषा बोलने लगे थे। यदि उन्हें कैब के कारण असम छोड़ना पड़ता है तो वे असमी भाषा बोलना भी छोड़ देंगे। फिर असमी भाषा बोलने वालों का आँकड़ा 35 फ़ीसद हो जाएगा। और यदि कैब के जरिये हिन्दू बंगाली को नागरिकता दे दी जाती है तो यह 40 फ़ीसद हो जाएगा। जिससे असम में असमी भाषा वाले अल्पसंख्यक बन जाएंगे।
असम में घुसपैठियों का मुद्दा दशकों पुराना है। 1979 से 1985 तक चले हिंसक आंदोलन के बाद एनआरसी की लिस्ट तैयार की गई। असम देश का पहला राज्य है जिसके लिए आजादी के बाद 1951 में एनआरसी खोला गया।इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले छात्रों ने क्षेत्रीय दल एजीपी का गठन किया जो बाद में सात पर काबिज़ हुई। इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि ये मुद्दा असमियों के लिए कितना संवेदनशील है।
अगर हम 31 अगस्त 2019 को आई एनआरसी की रिपोर्ट को देखें तो उसमे 19,06,657 लोग लिस्ट से बाहर थे जिसमे से करीब 12 लाख हिन्दू बंगाली थे। जिसके तुरन्त बाद इस बिल को संसद में पेश करना साफ तौर पर हिन्दू वोट बैंक की राजनीति को दिखा रहा है। इस बिल को इससे पहले सरकार 2016 में लाया गया था। जिसमे मुसलमानों का कहीं जिक्र नही था। जो राज्यसभा में लटक गया था। ध्यान देने वाली ये बात है कि गृहमंत्री अमित शाह संसद में जिस नॉन-मुस्लिम आबादी की बात कर रहे हैं। उसके अनुसार पाकिस्तान में आजादी के बाद 23% नॉन-मुस्लिम थे जो आज घटकर 3.7 फ़ीसद तक हो गये हैं। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार 23% नॉन मुस्लिम केवल ईस्ट पाकिस्तान में थें जो अब बांग्लादेश है। अगर हम ईस्ट और वेस्ट दोनों की बात करें तो कुल 14.20% थे। और केवल पाकिस्तान की बात करे तो वो 1951 में 3.5 फ़ीसद थे।
अब तक जितने भी देशों ने दूसरे शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी है। वो तुर्की, लेबनान, ईरान, युगांडा हो या पाकिस्तान सबको उनका खामियाजा आज तक भुगतना पड़ रहा है। भारत मैं ऐसे ही जनसंख्या पहले से ज्यादा है। बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, गिरती अर्थव्यवस्था को ठीक करने की जरूरत है।